Demo

K Kamaraj story : दोस्तों कुमार स्वामी कामराज कांग्रेस के कुछ बड़े और महान नेताओं में से रहे हैं हम के कामराज के बारे में लेखों की एक पूरी सीरीज बनाएंगे जिनमें उनके बचपन से लेकर उनके राजनीतिक जीवन तक के अलग-अलग प्रसंगों के बारे में आपको बताएंगे आज के इस पहले लेख में हम के कामराज के बचपन के बारे में आपको बताएंगे।

कौन थे के कामराज ( who was K Kamaraj )

के कामराज ( K Kamaraj ) का जन्म तत्कालीन मद्रास राज्य और वर्तमान में तमिल नाडु के सुदूर दक्षिणी जिले रामनाथपुरम (रामनाड) के विरुदुपट्टी के एक साधारण नाडार परिवार में हुआ था। इस सदी की शुरुआत में विरुदुपट्टी 16,000 की आबादी वाला एक छोटा-सा कस्बा था। इसके अधिकतर निवासी नाडार थे। हिंदू धर्म की जातीय श्रेणी में यह समुदाय अछूतों से बस एक सीढ़ी ऊपर मानी जाती थी। नाडार मुख्यतः तीन दक्षिणी जिलों मदुरई, रामनाड और तिरुनलवेली में पाए जाते हैं। लोगों के बीच यह जाति ‘शाना’ अर्थात ताड़ी बनाने वाली जाति के रूप में जानी जाती है। समय के साथ, अन्य जातियों की तरह शाना जाति के लोगों ने भी खेती और व्यापार जैसे अन्य पेशों को अपनाना शुरू कर दिया। पेशे में बदलाव के साथ ही इस जाति के अग्रणी लोगों में बेहतर सामाजिक स्थिति प्राप्त करने की स्वाभाविक इच्छा जगी।

वह अपने को नाडार कहने लगे और उन्होंने स्वयं को क्षत्रियों के बराबर घोषित किया। जाति व्यवस्था में ब्राह्मणों के बाद क्षत्रियों का ही स्थान आता है। लेकिन रामनाड जिले की दो प्रभुत्वशाली जातियां मारवार और थेवर इस बात के खिलाफ थे (रामनाड का राजा भी एक थेवर था)। अपने को क्षत्रिय साबित करने के क्रम में नाडारों ने मंदिरों में प्रवेश करने की कोशिश की जिसकी उन्हें पहले मनाही थी। इस बात पर नाडारों और थेवरों के बीच दंगे शुरू हो गए। जाति-व्यवस्था में नाडारों की स्थिति को न्यायालय के द्वारा निर्धारित करने की कोशिश का परिणाम यह हुआ कि 1908 में हाइकोर्ट ने जातीय व्यवस्था में नाडारों की निम्न स्थिति पर अपनी मुहर लगा दी। करीब 30 वर्ष के बाद जब सी. (राजाजी) के नेतृत्व में मद्रास में पहली कांग्रेस सरकार बनी तो इस निकृष्ट व्यवस्था को समाप्त किया गया तथा नाडार एवं अन्य दलित जातियों को सभी हिंदू मंदिरों में प्रवेश की इजाजत मिली।

लेकिन विरुदुपट्टी में नाडारों का विशाल बहुमत था और यहां उन्हें उच्च जातियों के प्रभुत्व को सहन नहीं करना पड़ता था। जबकि तिरुनलवेली में अनेक नाडारों ने ऊंची जातियों के अत्याचार से बचने के लिए इस्लाम या ईसाईयत स्वीकार कर लिया, विरुदुपट्टी के नाडार मजबूती से हिंदू आस्था में बने रहे। हाइकोर्ट के निर्णय के बावजूद उन्होंने क्षत्रिय के रूप में अपना दावा नहीं छोड़ा। इसकी गर्वपूर्ण अभिव्यक्ति इस समुदाय के कोष से चलाए जाने वाले स्कूल के नाम के रूप में दिखाई देती थी। जनगणना के आंकड़ों में ‘शाना’ के बजाए ‘नाडार’ के रूप में गिने जाने को अंग्रेजों ने 1921 में स्वीकृति दी। आंशिक रूप से इसका कारण इस समुदाय द्वारा प्रथम विश्वयुद्ध में सरकार के प्रति दिखाई गई वफादारी भी थी।

विरुदुपट्टी के नाडार पांच-छः समूहों में विभाजित थे। इनमें से नातनमइक्करर और मेघवर्णम प्रमुख थे। इन दोनों के बीच शादी-विवाह का संबंध चलता था। नातनमइक्करर सुलोचना नाडार को अपनी बहन पार्वती अम्मल के लिए वर की तलाश थी। स्वाभाविक था, उन्होंने मेघवर्णम गोत्र के निन्नपानदार को चुना। पार्वती अम्मल के दो बच्चों की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने पति के परिवार से एक बच्चे कुमारस्वामी को गोद लेने का निर्णय किया। सुलोचना नाडार को दो बेटे कठपिया और कासीनारायणन और एक बेटी सिवकामी थी। नाडारों में परंपरा से चली आ रही प्रणाली ‘मुरई’ के तहत सिवकामी का विवाह कुमार स्वामी से किया गया।

इस दंपति को 15 जुलाई, 1903 को एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम कुलदेवी कामाक्षी अम्मन के नाम पर कामाक्षी रखा गया। इसे प्यार से लोग ‘राजा’ बुलाया करते थे। बाद में इस स्त्रैण नाम ‘कामाक्षी’ की जगह ‘कामराज’ नाम अपनाया गया। पहले बेटे के 2 साल बाद कुमारस्वामी दंपति को एक बेटी हुई। उसका नाम ‘नागम्मल’ रखा गया।

कुमारस्वामी परिवार छोटा था लेकिन इसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। कुमार स्वामी नारियल की दुकान चलाते थे। वह विरुदुपट्टी के पश्चिमी भाग में रहते थे जहां गरीब नाडार रहा करते थे। पूर्वभाग में संपन्न नाडारों की बस्ती थी जो थोक व्यापारी और जमींदार थे। शहर के ठीक बीचोबीच स्थित एक तालाब

इन्हें विभाजित करता था। कुमार स्वामी अपनी स्वाभाविक भलमनसाहत, ईमानदारी और अत्यंत ही मीठे स्वभाव के लिए जाने जाते थे। वह बहुत कम बोलते थे और मृदुभाषी भी थे। उनका अपने समुदाय में बहुत सम्मान था।

ये भी पढ़ें- guru nanak jayanti 2021, gurupurab story in hindi : जानिए guru nanak की कहानी

कामराज के स्कूल का जीवन (early life of K Kamaraj )

पांच वर्ष की उम्र में कामराज ( K Kamaraj ) को प्रचलित रस्मो-रिवाज से स्कूल में दाखिला दिलवाया गया। इस अवसर के लिए उन्हें खास कपड़े पहनाए गए। जब उन्हें अपने पहले शिक्षक बेलायुधम के पास ले जाया गया तो उनके साथ उनका पूरा परिवार और गली-मुहल्ले के बच्चे भी थे। बेलायुधम ‘नोंदी वाडयार’ के रूप में विख्यात ये क्योंकि वह लंगड़े थे। बेलायुधम को मारने पीटने से कतई परहेज नहीं था और वह अपने शिष्यों के सामाजिक-आर्थिक आधार की बिलकुल परवाह नहीं करते थे। सभी को उनकी सख्ती का सामना समान रूप से करना पड़ता था। वर्णमाला और अंकगणित का पहला पाठ तो कामराज ने यहीं से पढ़ा लेकिन शिक्षक के कठोर तौर तरीकों से दुखी होकर कामराज के माता-पिता ने थोड़े ही समय बाद उस स्कूल से निकाल लिया।

इसके बाद उन्हें मुरुगय्या द्वारा चलाए जा रहे प्राथमिक विद्यालय दूनादीनता नयनार विद्याशाला में दाखिल करवाया गया। यहां कामराज ( K Kamaraj ) ने तमिल लिखना पढ़ना सीखा। अगले साल उन्हें विरुदुपट्टी के क्षत्रिय विद्याशाला में डाला गया। विरुदुपट्टी में एकमात्र यही स्कूल था जहां बच्चे स्कूल की पूरी पढ़ाई कर सकते थे।

आज क्षत्रिय विद्याशाला एक बड़ी संस्था बन चुकी हैं जिसमें 2000 से भी अधिक छात्र पढ़ते हैं। यह विद्यालय नाडारों द्वारा अपने समुदाय के लाभ के लिए स्व-सहायता तथा सहकारी गतिविधियों का एक बेहतरीन नमूना है। इसकी स्थापना 19वीं सदी के आठवें दशक में बच्चों के लिए निःशुल्क विद्यालय के रूप में की गई थी। इसकी व्यवस्था हरेक परिवार से रोज एक मुट्ठी चावल जमा कर की जाती थी। शुरुआत में इस स्कूल को ‘पिडि आरसी’ (मुट्ठी भर चावल) के नाम से जाना जाता था। बाद में उस क्षेत्र के नाडार व्यापारियों द्वारा दिए जाने वाले ‘महामाई’ योगदान से इसकी व्यवस्था की जाने लगी। नाडार व्यापारियों के बीच ‘महामाई’ एक पवित्र व्यवस्था के रूप में प्रचलित है जिसके द्वारा जमा की गई राशि का उपयोग समुदाय के लाभ के लिए किया जाता है। कुल खरीद बिक्री की एक छोटी-सी रकम (प्रायः 1 प्रतिशत) को अलग कर इसे समुदाय द्वारा चुने गए एक समिति के सदस्यों को सौंप दिया जाता है। यह समिति इस पैसे को अपने विवेक से खर्च करती है। कई शैक्षणिक तथा अन्य संस्थाएं इस ‘महामाई’ अनुदान के आधार पर चलती हैं।

क्षत्रिय विद्यालय भी स्कूल के उच्चतर स्तर तक मुफ्त शिक्षा में अग्रणी स्थान रखता था। आज कामराज ( K Kamaraj ) के मुख्यमंत्रित्व के दौरान किए गए ठोस प्रयासों की बदौलत सभी समुदाय के बच्चों के लिए माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा पूर्णतः निःशुल्क कर दी गई है। जो राह नाडार समुदाय ने 1888 में एक कस्बे के लिए दिखाई थी, वही सपना एक नाडार मुख्यमंत्री ने पचहत्तर वर्ष बाद पूरे राज्य के लिए पूरा कर दिखाया।

क्षत्रिय विद्यालय में दाखिला लेने के एक साल के अंदर ही कामराज ( K Kamaraj ) परिवार को अचानक एक क्रूर त्रासदी का सामना करना पड़ा। कामराज ( K Kamaraj ) के पिता, जिन्हें अभी-अभी नारियल और कुछेक अन्य चीजों के थोक व्यापार में अच्छी सफलता मिलनी शुरू हुई थी, एक दिन शाम को तेज सर दर्द की शिकायत लेकर घर पहुंचे। दूसरे ही दिन उनके प्राण पखेरू उड़ गए।

कामराज ( K Kamaraj )

की उम्र उस वक्त महज छह साल की थी। उन्हें शायद इस त्रासदी की भयंकरता की कोई समझ भी नहीं थी। उनकी युवा माता के लिए यह एक बड़ा वज्रपात था। उन पर दो छोटे-छोटे बच्चों कामराज ( K Kamaraj ) और उनकी बहन नागम्मल तथा अपनी सास पार्वती अम्मल की देखभाल का भार था। उनके ससुर का भी देहांत कुछ ही महीने पहले हुआ था। थोड़े से अंतराल पर घटित इस दोहरी त्रासदी ने तो मानो बूढ़ी सास की कमर ही तोड़ दी। पहले तो पति की मौत और फिर लिए बेटे की मौत। अब उनकी सारी उम्मीद नन्हें पोते पर टिकी थी।

दुख की इस घड़ी में कामराज ( K Kamaraj ) के चाचा करुपैया नाडार ने मदद की। यह विरुदुपट्टी में कपड़े की दुकान चलाते थे। सिवकामी अम्मल के गहनों को बेचकर परिवार के लिए नियमित आमदनी की व्यवस्था की गई। उम्मीद थी कि अपनी पढ़ाई पूरी करते ही कामराज अपने चाचा की दुकान में काम करने लगेंगे और परिवार के पालन पोषण के लायक कमाने लगेंगे।

नट्टन मइक्करर करुपैया के भतीजे होने के नाते, कामराज ( K Kamaraj ) को स्थानीय मंदिर, स्कूल यहां तक कि खेलकूद के अपने साथियों के बीच भी खास तरजीह मिलती थी। विरुदुनगर के एक वरिष्ठ समकालीन व्यक्ति ने लेखक को बताया कि शायद इसी कारण कामराज ‘बिगड़’ गए और पढ़ाई में पिछड़ गए। कामराज स्कूल में काफी शैतानियां करते थे और ज्यादा से ज्यादा वक्त स्कूल से बाहर ही बिताना पसंद करते थे।

कई साल बाद एक मीटिंग के दौरान उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने अपनी पढ़ाई किसी राजनीतिक कारण से नहीं छोड़ी-जैसा कि 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान कई लोगों ने किया था, बल्कि इसलिए कि उनकी रुचि पढ़ाई में नहीं थी। एक उद्यमी तमिल पत्रकार ने कामराज ( K Kamaraj ) के बचपन के ऐसे अनेक दुस्साहसिक कारनामों को इकट्ठा किया है जिसमें बचपन में ही उनकी साधन संपन्नता, साहस और नेतृत्व क्षमता का परिचय मिलता है। लेकिन कामराज इन कहानियों को महत्वहीन मानकर खारिज करते हैं।

यहां स्कूल में हुई एक घटना की चर्चा उचित है क्योंकि इससे एक किशोर में के रूप में कामराज ( K Kamaraj ) के चरित्र पर प्रकाश पड़ता है।

के बाद क्षत्रिय विद्यालय में विनायक चतुर्थी समारोह के लिए हर छात्र को पांच पैसे (रुपये का तेरहवां हिस्सा) देने होते थे। विनायक की मूर्ति की पूजा भुने हुए चावल, नारियल के टुकड़े और गुड़ जैसी चीजों से बने प्रसाद को छात्रों के बीच बांटा जाता था। प्रसाद लेने के लिए बड़ी आपाधापी मचती थी। हर छात्र शिक्षक से अधिक से अधिक प्रसाद पाने की कोशिश करता। इस आपाधापी के बीच केवल कामराज ( K Kamaraj ) अपनी बारी आने का इंतजार करते रहे। जबकि उनकी बारी आई तो बहुत थोड़ा सा प्रसाद बचा था।

घर वापस आने पर उनकी दादी ने इतना थोड़ा प्रसाद लाने की वजह पूछी। “तुम्हें ज्यादा नहीं मिला? दूसरे लड़कों ने तुमसे पहले प्रसाद ले लिया होगा।” “लेकिन, क्या तुम चाहती हो कि मैं दूसरों से लड़ाई करूं? क्या मैंने सबके

बराबर पैसा नहीं दिया है? मुझे अपने वाजिब हिस्सा क्यों नहीं मिलना चाहिए? “तुम्हें और लोगों से आगे होने की कोशिश करनी चाहिए थी।” दादी ने जवाब दिया।

“लेकिन क्यों? क्या यह शिक्षक का कर्त्तव्य नहीं है कि जिस किसी ने भी चंदा दिया है उसे उसका वाजिब हिस्सा मिले? क्या प्रसाद पाने के लिए लड़ाई करना जरूरी है? तुम मेरे शिक्षक से क्यों नहीं सवाल पूछती ?”

बेचारी वृद्ध महिला के पास कोई जवाब नहीं था। बच्चों का अपने हिस्से से ज्यादा पाने के लिए उधम मचाना और आपाधापी करना उन्हें सहज लगा। कामराज ( K Kamaraj ) के सोचने का तरीका उन्हें अवश्य ही अजीब लगा होगा। उन्हें क्या मालूम था कि सालों बाद सत्ता और पद के लिए झगड़ते बड़े लोगों के बीच सुलह समझौता करवाना ही उनकी नियति होने वाली थी।

जो लोग कामराज ( K Kamaraj ) के राजनीतिक जीवन से परिचित हैं, उन्हें यह घटना जीवन और चरित्र के प्रति कामराज के नज़रिए की कुंजी प्रदान करती है। कामराज हमेशा अपने आप को पृष्ठभूमि में रखते थे जबतक कि उन्हें आगे आने के लिए मजबूर नहीं किया जाता।

कामराज ( K Kamaraj ) के लड़कपन की एक घटना को एक अमरीकी संवाददाता ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध बना दिया। यह घटना एक हाथी के बारे में है जो एक दिन मंदिर के तालाब में स्नान कर वापस आते वक्त बेकाबू हो गया। हाथी महावत के वश में नहीं आ रहा था और भरे बाजार में मतवाले की तरह दौड़ रहा था। कामराज ( K Kamaraj ) ने देखा कि इसकी सूंड में वह जंजीर नहीं थी जो अस्तबल से निकलने के बाद प्रायः इसकी सूंड में रहती थी। कामराज तुरंत मंदिर गए और जंजीर को हाथी के आगे फेंक दिया। हाथी ने वह जंजीर उठा ली और बिलकुल शांत हो गया। कामराज उसे मंदिर ले गए। वहां के एक पुराने नागरिक ने यही कहानी थोड़े दूसरे ढंग से सुनाई। उनका कहना था कि कामराज प्रायः मंदिर जाते थे और इस हाथी को केले आदि फल खिलाया करते थे। इसके परिणामस्वरूप उनके बीच दोस्ती हो गई थी। महावत की छेड़छाड़ से एक दिन हाथी नाराज हो गया लेकिन कामराज के दोस्ताना चेहरे को देखकर वह शांत हो गया।

वास्तविकता चाहे जो भी हो, इस घटना से कठिन परिस्थितियों में भी कामराज ( K Kamaraj ) है के दृढ़ साहस और साधन संपन्नता की एक झलक तो जरूर मिलती

कामराज ( K Kamaraj ) के लड़कपन के दुस्साहसपूर्ण कारनामे और उनके स्कूल के दिन जल्द ही समाप्त हो गए। बारह वर्ष की उम्र से पहले ही उनके चाचा ने उन्हें पढ़ाई से हटाकर कपड़े की दुकान पर मदद के लिए रखने का निर्णय किया। वैसे भी कामराज ( K Kamaraj ) का मन पढ़ाई में कम ही लगता था । नाडार व्यापारियों को उच्च शिक्षा पर कोई भरोसा नहीं था। उनका मानना था कि लिखना-पढ़ना जानने के बाद दुकानदारी बच्चों को बाकी चीजें सिखा देती हैं। उस समय विरुदुपट्टी में मैट्रिक पास करने वाले नाडारों की संख्या एक दर्जन से ज्यादा नहीं थी।

कामराज ( K Kamaraj ) के लिए यह बदलाव उतना बुरा भी नहीं था प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो चुका था और देश दुनिया में अनेक रोचक घटनाएं हो रही थीं। शुरुआती अवस्था में ही कामराज ( K Kamaraj ) को सार्वजनिक घटनाओं में गहरी रुचि पैदा हो गई। वह अखबार भी बड़े गौर से पढ़ते थे उन दिनों वह ज्ञानम नाम के व्यक्ति की तंबाकू की दुकान पर जाकर बैठा करते थे जहां कुछ अन्य युवक गप्पें लड़ाने आया करते थे। यहां के. एस. मुथुस्वामी असरी, जिनके पिता बढ़ई का काम करते थे, उनके साथी हुआ करते थे। कामराज ( K Kamaraj ) और उनके दोस्त युद्ध तथा स्व-शासन के लिए भारतीय लोगों के आंदोलन के बारे में पढ़ा करते थे। कभी कभार डॉक्टर वर्दराजालु नायडू, टी.वी. कल्याण सुंदरम, जॉर्ज जोसेफ तथा अन्य कांग्रेसी नेता विरुदुपट्टी में राष्ट्रवादी सभाओं को संबोधित किया करते थे। कामराज इन सभाओं में जाने से कभी चूकते नहीं थे भले ही उन्हें अपनी दुकान से थोड़ा पहले क्यों न निकलना पड़े।

युद्ध में मित्र राष्ट्रों की विजय हुई लेकिन भारत को निराशा और त्रासदी ही हाथ लगी। जहां एक ओर देश मोंटफोर्ड प्रस्तावों से पहले से ही दुखी था जिसने स्वशासन के प्रस्ताव को मजाक बना दिया था, वहीं दूसरी तरफ लोगों को रौलट बिल का सामना पड़ा जिसमें राष्ट्रवादी आंदोलन को दबाने के लिए क्रूर उपायों का प्रावधान किया गया था। गांधीजी ने 6 अप्रैल, 1919 को रौलेट बिल के विरोध में देशभर में सत्याग्रह दिवस मनाने की अपील की। पंजाब के नेताओं किचलू और सत्यपाल की गिरफ्तारी के विरोध में पंजाब में दंगे भड़क उठे जिसकी परिणति चार दिनों बाद जलियांवाला बाग में 13 अप्रैल को हुई जहां सैकड़ों स्त्री, पुरुष और बच्चों की निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी गई। इस शांतिपूर्ण सभा में जमा लोगों की जनरल डायर द्वारा की गई निर्मम हत्या से पूरे देश में आतंक की लहर फैल गई।

16 वर्षीय कामराज ( K Kamaraj ) की जिंदगी के लिए अमृतसर का यह हादसा एक बड़ा मोड़ साबित हुआ। इसके बाद से विदेशी शासन की समाप्ति और देश की आजादी उनकी जिंदगी की एकमात्र प्रेरक भावना बन गई। वह देश की आजादी के आंदोलन के शीर्ष पर मौजूद कांग्रेस की ओर आकर्षित हुए। स्वतंत्रता की भावना के साकार प्रतीक गांधीजी के प्रति भी वह समर्पित हो गए।

एक बार यह फैसला कर लेने के बाद कामराज ( K Kamaraj ) इस पर हमेशा अडिग रहे और उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वर्षों तक वह एक सामान्य कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में अपनी व्यक्तिगत सुख-सुविधा या पद की परवाह किए बिना राष्ट्रवादी कार्यों में लगे रहे। परिवार के लोगों ने उन्हें इस ‘खतरनाक’ राष्ट्रवादी राजनीति से दूर करने की लाख कोशिश की मगर वो नाकामयाब रहे।

राजनीति से अलग हटाने के लिए उन्हें विरुदुपट्टी से हटाकर त्रिवेंद्रम भेजा गया जहां उनके दूसरे चाचा कासी नारायण नाडार की लकड़ी की दुकान थी। यहां भी अपने कारोबार का खयाल रखते हुए, वह राजनीतिक गतिविधियों में शामिल रहे। उन्होंने वैकम सत्याग्रह में भाग लिया। यह आंदोलन थिया और ईजावा जाति के लोगों के लिए मंदिर को जाने वाली मुख्य गली में चलने का अधिकार दिलाने के लिए थी जिसपर जाति के आधार पर चलने की मनाही थी। कामराज ( K Kamaraj ) को गिरफ्तार नहीं किया गया। लेकिन अंततः त्रावणकोर की सरकार को हार स्वीकार करनी पड़ी।

यह देखकर कि त्रिवेंद्रम ले जाने के बावजूद कामराज ( K Kamaraj ) की राजनीतिक रुचियों में कोई परिवर्तन नहीं आया, उनके चाचा करूपैया उन्हें विरुदुनगर वापस ले आए। यहां आकर कामराज कांग्रेस की गतिविधियों में और भी जोर शोर से शामिल हो गए।

दरअसल, 1921 के बाद कामराज ( K Kamaraj ) कांग्रेस के कामों में इस कदर डूब गए कि बाकी किसी चीज में उनकी रुचि नहीं रही। कुछ आमदनी के लिए उन्होंने एक बीमा एजेंसी में कुछ महीनों के लिए काम भी किया लेकिन जल्दी ही उन्होंने इसे छोड़ दिया। वह पूरी तरह से राजनीतिक गतिविधियों में डूब गए। 1930 के आसपास उनके चाचा और मां ने उनसे शादी करने का आग्रह किया। लेकिन कामराज टस से मस नहीं हुए। उन्होंने भारत के आजाद होने तक शादी नहीं करने का दृढ़ निश्चय किया था। लेकिन अगस्त 1947 के बाद जब उन्हें शादी के बारे में एक बार फिर पूछा गया तो उन्होंने यह कहते हुए इसे खारिज कर दिया कि उन्हें शादी की आवश्यकता महसूस नहीं होती। उनका टका-सा जवाब या ‘अदु वेवइ इल्लइ’ (यह जरूरी नहीं है।)

उनके दो सबसे पुराने सहयोगियों मुथुसामी तथा धनुषकोडी ने भी आजादी मिलने तक शादी नहीं करने का प्रण लिया था। मुथुस्वामी ने तो 1947 के बाद शादी कर ली लेकिन धनुषकोडी कामराज की तरह ही अविवाहित रहे। जिन कुछ चुने हुए समर्पित और वफादार लोगों ने हमेशा कामराज का साथ दिया और जरूरत पड़ने पर मदद देने के लिए प्रस्तुत हुए उनमें धनुषकोडी का नाम अग्रणी है।

Share.
Leave A Reply

Live Almora

Stay connected with Live Almora – your trusted source for local news, events, and updates from Almora and across Uttarakhand. Real stories, real voices, right from the hills.

Contact Us-  
Aryan Sharma
Kalli mitti gaon
Thano road
Raipur dehradun
Phone – 91934 28304