Demo

K kamraj Jail story :ये कामराज की जेल यात्रा पर नजर डालने से पहले जरूरी है हम उनके स्वस्न्त्रता सेनानी बनने की कहानी जाने। चलिये के कामराज (K kamraj) के राजनीति में आने की कहानी जानते है।जब महात्मा गांधी ने अंग्रेजों को एक साल के अंदर भगाने के लिए असहयोग का नारा दिया तो उस समय कामराज 18 वर्ष के थे। देश पूरी तरह आंदोलित हो गया था। इस आह्वान से प्रेरित होकर उन्होंने खादी के प्रचार और गांवों में नशाबंदी के लिए काम करना शुरू किया।

परंतु विरुदुनगर की स्थितियां कांग्रेस के कार्य के अनुकूल नहीं थीं। कस्बे के समृद्ध नाडार पूरी तरह अंग्रेज समर्थक थे और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेकर समुदाय के भविष्य या अपने स्वार्थ को खतरे में नहीं डालना चाहते थे। कामराज (K kamraj) और उनके कुछ साथियों के कांग्रेस समर्थक कार्यों को लेकर लोगों में नाराजगी थी। जबकि अन्य कई शहरों में समृद्ध लोगों ने बिना हिचकिचाए कांग्रेस का समर्थन किया, वहीं विरुदुनगर में गांधी टोपी वाले देशभक्तों को विरोध और अपमान झेलना पड़ता था।

अमीर नाडारो के विरोध के बीच अपने पैतृक शहर में कांग्रेस के कार्यों के लिए धन इकट्ठा करना और सभाएं आयोजित करना कामराज (K kamraj) के लिए आसान नहीं था। उन्होंने रेलवे स्टेशन पर यात्रियों से चंदा वसूलने के लिए अपने कार्यकर्ताओं को हुंडी लेकर भेजने का कार्य शुरू किया।

विरुदुनगर आने वाले कांग्रेस के नेताओं जैसे डॉक्टर वर्दराजुलु नायडू, जॉर्ज जोसेफ, एस. सत्यमूर्ति आदि के लिए सभाएं आयोजित करने में कामराज आगे थे। स्थानीय जस्टिसवादी अपने लोगों को भेजकर इन सभाओं में गड़बड़ी पैदा करने की कोशिश करते थे। कामराज अपने साथियों को संगठित कर इसे रोकते थे और कभी कभार जस्टिसवादियों की सभाओं में गड़बड़ी भी पैदा किया करते थे। धीरे-धीरे लोग कामराज (K kamraj) की ताकत का लोहा मानने लगे और स्थानीय पुलिस के रजिस्टर में वह उन लोगों में शामिल कर लिए गए जिन पर पैनी नजर रखी जाती थी।

अगले दस सालों तक कामराज (K kamraj) अपने तालुक या जिले के गांवों में जाकर कांग्रेस का प्रचार प्रसार करते रहे। बीच-बीच में सत्यमूर्ति उन्हें अन्य कार्यों लिए बाहर भी भेजते थे। वह एक अर्द्ध-यायावर सी जिंदगी जी रहे थे, जो भी मिले खा लेते थे, जहां भी हुआ सो लेते थे। एक बंडल बीड़ी और भैंस के दही के साथ दो जून की रोटी बस यही उनकी जरूरत थी। उन दिनों मुथुस्वामी हमेशा उनके साथ रहते थे। वह वाकपटु थे और आसानी से लोगों को उत्तेजित कर सकते थे। कामराज (K kamraj) एक संतुलित वक्ता थे और अपने को पीछे रखकर दूसरों को बोलने देना पसंद करते थे। गांव में खादी बेचना एक महत्वपूर्ण राष्ट्रवादी कार्यक्रम था। कामराज इस काम में सक्रिय थे।

बीच-बीच में वह सत्याग्रह में भी शामिल हुआ करते थे। नागपुर के सिविल लाइन इलाके में राष्ट्रवादी (कांग्रेस) झंडे को ले जाने की मनाही के विरोध में 1923 में ‘झंडा सत्याग्रह का आयोजन किया गया। देशभर से आए कार्यकर्ताओं ने इस प्रतिबंध को तोड़ते हुए गिरफ्तारी दी। मद्रास के त्रिचि में एक केंद्र का आयोजन किया गया जहां से कामराज सत्याग्रहियों का दस्ता कामराज (K kamraj) नागपुर भेजते थे। जब तक वह स्वयं इस कार्यक्रम में शामिल होते प्रतिबंध उठा लिया गया और सत्याग्रह भी वापस ले लिया गया।

एक अन्य अवसर पर हथियार संबंधी कानून को तोड़ने के लिए कामराज (K kamraj) ने आंदोलन किया । इसे तोड़ने के लिए वह खुद निर्धारित लंबाई से बड़ा चाकू लेकर चलते थे। उन्होंने मदुरई के पांच सत्याग्रहियों के बीच यह चाकू बांटा भी। सर सी.पी. रामास्वामी अय्यर जो कि गवर्नर की कार्यकारी समिति के कानूनी सदस्य थे, ने एक आदेश जारी किया जिसके अनुसार केवल मालाबार जिले में चाकुओं पर प्रतिबंध रहा जहां कि मोपला दंगे हुए थे। इसके कारण यह आंदोलन कमजोर पड़ गया।

प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों के आशीर्वाद और सहयोग से चलाया जाने वाला गैर-ब्राह्मण आंदोलन कांग्रेस द्वारा काउंसिल के बहिष्कार के कारण और भी मजबूत हो गया। मोंटफोर्ड सुधारों के तहत मद्रास में जस्टिस पार्टी ने पहली बार सरकार बनाई और शिक्षा, सहकारिता आदि के प्रसार के लिए कदम उठाए। उन्होंने नौकरियों में गैर-ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए भी कदम उठाए। उस वक्त नौकरियों में ब्राह्मणों की संख्या अनुपात से काफी ज्यादा थी।

नौकरियों में ब्राह्मणों की बहुतायत के ऐतिहासिक कारण थे। लेकिन जब अंग्रेज ने देखा कि ब्राह्मण वकील अंग्रेज विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे हैं तो उन्होंने हिसाब लगाया कि वह गैर-ब्राह्मणों को सरकार की ओर मोड़ सकते हैं यदि उन्हें किसी तरह यह भरोसा दिलाया जाए कि कांग्रेस की बजाय सरकार का साथ देने में ही उनकी भलाई है। चूंकि गैर-ब्राह्मण नेता तात्कालिक परिणामों के बारे में अधिक चिंतित थे और सत्ता में जाना चाहते थे इसलिए कांग्रेस के साथ मिलकर नाहक परिश्रम की जगह उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत का साथ देना बेहतर समझा। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि गैर-ब्राह्मण वर्गों के संपन्न लोगों को इस नीति का बड़ा लाभ मिला। समुदायिक अनुपात, जिसके अनुसार सभी नई बहालियों में ब्राह्मणों को 14 में से केवल 2 स्थान दिए जाते थे, लागू किए जाने के बाद नौकरियों में गैर-ब्राह्मणों की संख्या में भारी इजाफा हुआ।

शिक्षा और रोजगार में समता मूलक आधार पर बेहतर हिस्सेदारी के लिए गैर-ब्राह्मणों का संघर्ष आवश्यक और जायज था। लेकिन इस संघर्ष को तथाकथित द्रविड़ों और आर्यों के बीच पूर्णतः निरर्थक संघर्ष में बदलकर (गैर-ब्राह्ममणों को द्रविड़ और ब्राह्मणों को आर्य करार देकर) यह आंदोलन भटक गया। इसने विरासत में विवेकहीन मनमुटाव और विकृत दृष्टिकोण की नींव डाली और भारतीय राष्ट्रवाद के खिलाफ एक संकीर्ण तमिल भाषाई मतांधता को खड़ा किया।

कामराज (K kamraj) को इस बात का श्रेय जाता है कि इन वर्षों में जब जस्टिस पार्टी मद्रास की राजनीति में सशक्त थी, डॉक्टर वर्दराजुलू नायडू और रामास्वामी अय्यर जैसे नेताओं से अपने पूर्व-संबंध के बावजूद वह अपने राष्ट्रवादी आदर्शों पर कड़ाई से डटे रहे। ध्यान देने की बात है कि डॉक्टर वर्दराजुलू नायडू और रामास्वामी नायकर ने 1924 में कांग्रेस से यह कहते हुए नाता तोड़ लिया था कि कांग्रेस ब्राह्मण- प्रभुत्व वाली पार्टी बन गई है। चुनावी अभियान के दौरान कामराज (K kamraj) ने श्रीनिवास आयंगर तथा सत्यमूर्ति के साथ मिलकर काम किया। गांवों की स्थिति देखकर उन्होंने अनुभव किया कि लोगों के रहन सहन में मौलिक सुधार तभी हो सकता है जब पूरी राजनीतिक आजादी प्राप्त हो जाए। गैर-ब्राह्मण या ब्राह्मण संभ्रांत परिवार के शिक्षित वर्ग द्वारा नौकरियों के लिए किए जाने वाले आंदोलन में उनकी कोई रुचि नहीं थी। गैर-ब्राह्मण आंदोलन में सक्रिय अनेक लोगों की तुलना में कामराज (K kamraj) ने बेहतर तरीके से यह समझा कि राजनीतिक आजादी के साथ ही लोगों के पास वह ताकत आएगी जिसके बल पर वह आर्थिक समानता कहीं तेज गति से प्राप्त कर पाएंगे।

इस प्रकार कामराज (K kamraj) मद्रास की गैर-ब्राह्मण समस्या को एक बेहतर नजरिए से देख पाए। आजादी के पहले के कुछ वर्षों में उन्होंने इसे अंग्रेज-प्रेरित एक महत्वपूर्ण आंदोलन कहकर खारिज कर दिया। उनका मानना था कि इसका उद्देश्य लोगों का ध्यान आजादी हासिल करने के तात्कालिक उद्देश्य से हटाना था। आजादी के बाद भी वह इसे पहले से चली आ रही एक खुमारी मानते रहे जिसका कोई गंभीर राजनीतिक महत्व नहीं था। हालांकि इनसे लाभान्वित होने वाले अनेक व्यक्ति और गुट इसके दीवाने थे और कभी कभार उन्हें इसका राजरीतिक लाम भी मिल जाता था।

अपने आकलन में कामराज (K kamraj) कितने सही थे इसका अंदाजा 1936 में जस्टिस पार्टी की करारी हार (जिससे राष्ट्रीयता की सांप्रदायिकता पर जीत जाहिर होती है) और 1947 के बाद राजनीतिक शक्ति के रूप में इसके खात्मे से लगाया जाता है। आज भी और उस वक्त भी कामराज की समस्या थी जाति और भाषा के नाम पर अपने राजनीतिक और आर्थिक एजेंडे को संकुचित रखने वालों की जगह प्रगतिशील राष्ट्रीय नीतियों के पक्ष में तमिलनाडु की जनता का समर्थन प्राप्तः करना ।

ये भी पढ़ें- K Kamaraj story: कांग्रेस के महान नेता कामराज के बचपन की कहानी

के कामराज ( K kamraj ) की जेल जाने की कहानी

अप्रैल 1930 में नमक कानून तोड़ने के लिए गांधीजी ने अपनी प्रसिद्ध दांडी यात्रा शुरू की। मद्रास में नमक कानून तोड़कर नमक बनाने के लिए त्रिची से वेदारण्यम के बीच सत्याग्रहियों के दस्ते का नेतृत्व राजाजी ने किया। कामराज (K kamraj) ने भी वहीं सत्याग्रह में भाग लिया। वह गिरफ्तार हुए और उन्हें दो साल की सजा हुई।

यह कामराज (K kamraj) की पहली जेल यात्रा थी। उनकी दादी पार्वती अम्मल को इनसे गहरा लगाव था। वह कामराज (K kamraj) के राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग पहले से ही चिंतित थी। उनकी गिरफ्तारी की खबर से उन्हें गहरा धक्का लगा और उनका स्वास्थ्य अचानक गिर गया। वह अपने पोते को जल्द घर वापस देखना चाहती थी। आसपास के लोग उन्हें आश्वासन देते रहते थे कि कामराज जल्द ही घर वापस आएंगे। दिन बीते महीने बीते। बेचारी बूढ़ी अपने प्यारे कामराज को देखने की आस लगाए जिंदा रही। के कारण

जुलाई 1931 में जब पार्वती अम्मल की तबियत ज्यादा बिगड़ गई तो उनके नाती दोरईस्वामी ने दादी को देखने के लिए उन्हें पेरोल पर छुड़ाने की कोशिश की। बड़ी मुश्किल से उन्होंने मद्रास सरकार से कामराज (K kamraj) के लिए 15 दिन के पेरोल की व्यवस्था की। पेरोल संबंधी आदेश को लेकर दोरईस्वामी नाडार और उनके बहनोई धनुषकोडी नाडार बेलारी जेल गए जहां उन्हें अन्य राजनीतिक कैदियों के साथ रखा गया था। कामराज (K kamraj) को उनकी दादी की खराब हालत और रिहाई के लिए पेरोल के बारे में बताया गया। लेकिन कामराज ने जेल से वापस जाने से मना कर दिया क्योंकि पेरोल में ‘अच्छे आचरण’ की गारंटी मांगी गई थी। उन्हें लगा कि अपनी रिहाई के लिए इन शर्तों को मानना उनके सिद्धांतों और आत्म-सम्मान के खिलाफ था।

दोरईस्वामी और धनुषकोडी को गहरी निराशा हुई। कामराज (K kamraj) ने जिस रुखाई के साथ उनके प्रयासों पर पानी फेर दिया था इसके कारण दोरईस्वामी नाडार तो कामराज से काफी नाराज भी हो गए।

लेकिन भाग्य पार्वती अम्मल पर मेहरबान था। गांधी इरविन समझौते के बाद कामराज (K kamraj) और अन्य राजनीतिक कैदियों को समय से पहले जेल से रिहा कर दिया गया। जब वह विरुदुनगर वापस लौटे तो स्टेशन पर उनका अभूतपूर्व स्वागत किया गया। वह विरुदुनगर के हीरो बन चुके थे। उन्हें एक जुलूस में घर ले जाया गया जिसके साथ भारी भीड़ चल रही थी। कामराज (K kamraj) समय पर घर पहुंच गए। उन्हें जान से भी ज्यादा प्यार करने वाली दादी ने उन्हें जी भर कर आशीर्वाद दिया। अपने आत्मबल के बूते पर वह कामराज के वापस आने तक जिंदा रही और दो दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई।

घर पहुंचने पर, लोगों ने कामराज (K kamraj) से दो शब्द कहने का आग्रह किया। धनुषकोडी इस मौके पर मौजूद थे। उन्होंने बताया कि हालांकि कामराज इस अवसर पर बहुत संक्षेप में बोले, उनकी बातों का उन पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा। अपने सहयोगियों और मित्रों को इस भव्य स्वागत के लिए धन्यवाद देते हुए कामराज ने कहा कि “मैं आप सबसे अपील करता हूं कि आप भगवान से प्रार्थना करें कि आपने जो स्नेह और सम्मान दिया है वह मेरे सर पर न चढ़ जाए और मैं घमंडी या उद्दंड न बन जाऊं”। इस अवसर पर स्वतः स्फूर्त ढंग से कही गई बात के पीछे जनता के साथ एक बने रहने की विनम्रता और सद्भावना निहित थी। बाद के वर्षों में उच्च पदों और हैसियत प्राप्त करने के बाद भी कामराज के व्यक्तित्व में यही विनम्रता बनी रही।

1931 में सत्याग्रहियों की रिहाई के बाद सत्यमूर्ति की अध्यक्षता में एक प्रांतीय कांफ्रेंस का आयोजन किया गया। तमिलनाडु कांग्रेस कमिटी के लिए अध्यक्ष पद के में राजाजी और सत्यमूर्ति के बीच टक्कर को टालने के लिए एक चुनाव समझौता हुआ जिसके तहत राजाजी को अध्यक्ष और सत्यमूर्ति को उपाध्यक्ष बनाया गया। एम. भक्तवत्सलम और डॉक्टर टी. एस. एस. राजन सचिव चुने गए। कार्यसमिति में चुने गए सभी सदस्य सत्यमूर्ति गुट के थे। कामराज को समिति में रामनाड के प्रतिनिधि के रूप में चुना गया। इस तरह कामराज (K kamraj) ने तमिलनाडु कांग्रेस के अंदर एक महत्वपूर्ण औपचारिक पद प्राप्त किया।

गांधी इरविन समझौते से पैदा हुई आशा छलावा साबित हुई। गांधीजी लंदन में आयोजित दूसरे गोलमेज कांफ्रेंस से खाली हाथ लौटे और बंबई पहुंचते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। लार्ड वेलिंगडन ने दमन का भारी चक्र चलाया।

कामराज पर कोई आरोप नहीं था इसलिए उनपर ‘जमानत’ के नाम पर मुकदमा चलाया गया। राजनीतिक कार्यकर्ताओं को उस समय प्रायः सजा हो जाती थी। चूंकि उन्होंने जमानत देने से मना कर दिया इसलिए उन्हें जेल भेज दिया गया। कामराज (K kamraj) को वेल्लोर जेल भेजा गया जहां पहले से ही अनेक कांग्रेसी कैद थे। इनमें कुछ वो लोग भी थे जो भगतसिंह षडयंत्र मुकदमे में सजायाफ्ता थे। जेल में वह जयदेव कपूर और कमलनाथ तिवारी से मिले जो भगत सिंह के सहयोगी थे जिन्हें 1931 में सांडर्स हत्या के आरोप में फांसी दे दी गई थी।

जेल में इन कैदियों से मुलाकात करने के नाम पर पुलिस ने कामराज को 1933 के मद्रास षडयंत्र मुकदमें में फंसाने की कोशिश की। पुलिस ने कहानी गढ़ी कि कामराज के. अरुणाचलम और उनके सहयोगियों ने बंगाल के हठी गवर्नर सर जॉन एंडरसन की उटकमंड यात्रा के दौरान हत्या की साजिश रची। कामराज पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने अरुणाचलम के लिए दो पिस्तौलों की व्यवस्था की। बाद में इस घटना के असली तथ्यों के बारे में बताते हुए अरुणाचलम ने रहस्योद्घाटन किया कि कामराज (K kamraj) ने जो पैसे उन्हें दिए थे उससे उन्होंने पांडिचेरी में एक रिवॉल्वर खरीदा और दूसरा अपने पैसे से। उन्होंने बताया कि अगर उन्हें मद्रास षडयंत्र केस में गिरफ्तार नहीं किया गया होता तो सर जॉन पर हमला किया जाता। पुलिस को जब ये दो रिवॉल्वर नहीं मिले तो इस मुकदमे के एक अन्य आरोपी सुब्रमण्यम के पास एक रिवॉल्वर जबर्दस्ती रख दिया गया। जब इसे कोर्ट में पेश किया गया तो आंध्र के राष्ट्रवादी बैरिस्टर टी. प्रकाशम ने साबित कर दिया कि यह वही रिवॉल्वर था जिसे पुलिस ने अपने रिकॉर्ड में सिंगमपट्टी के जमींदार के घर से बरसों पहले चोरी हुआ दिखाया था। अनेक प्रांतों के आरोपियों

को विभिन्न अवधियों की कैद की सजा सुनाई गई। कामराज को युवा क्रांतिकारियों से सहानुभूति थी। उनसे इनकी मुलाकात भी होती थी। लेकिन उनकी गतिविधियों में इनकी कोई प्रत्यक्ष हिस्सेदारी नहीं थी।

विरुदुनगर डाकखाने और विलिपुतुर थाने में देशी बम बरामद होने के बाद पुलिस ने एक बार फिर कामराज और विरुदुनगर के इनके सहयोगियों को फंसाने की कोशिश की। जॉर्ज जोसेफ ने इनकी ओर से जिरह की और पुलिस की कहानी को मनगढंत साबित कर इन्हें निर्दोष करार दिलवाया।

विरुदुनगर बम केस की चर्चा करते हुए कामराज की मां सिवकामी अम्मल ने लेखक को बताया कि एक दिन दल बल के साथ पुलिस इनके घर की तलाशी लेने पहुंची। कामराज उस वक्त घर पर नहीं थे और उनकी मां ने पुलिस को तब तक तलाशी नहीं लेने दी जब तक कि जान पहचान का कोई पुरुष तलाशी के दौरान मौजूद नहीं हुआ। उनके एक संबंधी को बुलाने के बाद ही उन्होंने घर की तलाशी लेने दी। पुलिस को वहां कुछ भी आपत्तिजनक प्राप्त नहीं हुआ।

Share.
Leave A Reply