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देश की माटी को अपने प्राणों से सींचने वाले वीर सपूतों की कहानियाँ हमें न केवल गर्व से भर देती हैं, बल्कि हमें कर्तव्य, समर्पण और वीरता का अर्थ भी सिखाती हैं। ऐसा ही एक नाम है शहीद कैप्टन दीपक सिंह का, जिन्होंने मात्र 25 वर्ष की आयु में मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। उनके इस असाधारण बलिदान और साहस के लिए उन्हें मरणोपरांत देश के तीसरे सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ‘शौर्य चक्र’ से सम्मानित किया गया।

 

सम्मान का क्षण

 

23 मई 2025 को राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक गरिमामयी समारोह में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने यह सम्मान उनके माता-पिता, श्रीमती चंपा सिंह और श्री महेश सिंह कुवार्बी, को सौंपा। उस क्षण की भावनात्मक गहराई शब्दों से परे थी। एक ओर गर्व था कि उनका बेटा देश के लिए शहीद हुआ, दूसरी ओर वह खालीपन जो शायद जीवन भर उनके साथ रहेगा।

 

अल्मोड़ा की धरती से उठे थे वीर

 

कैप्टन दीपक सिंह उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के बग्वालीपोखर के कामा गांव के रहने वाले थे। पहाड़ की शांत और सौम्य वादियों में पले-बढ़े दीपक ने बचपन से ही कुछ अलग करने की ठानी थी। उनका सपना था देश की सेवा करना, और यही सपना उन्हें भारतीय सेना की वर्दी तक ले गया। अपनी मेहनत, अनुशासन और कर्तव्यनिष्ठा के बल पर उन्होंने सेना में अपना स्थान बनाया।

 

सैन्य जीवन और अंतिम मिशन

 

कैप्टन दीपक सिंह भारतीय सेना की सिग्नल कोर की 48वीं बटालियन राष्ट्रीय राइफल्स में तैनात थे। उनकी तैनाती जम्मू-कश्मीर के डोडा जिले में थी — वह क्षेत्र जो अक्सर आतंकवादियों की गतिविधियों का केंद्र बनता है।

 

14 अगस्त 2024 को डोडा जिले में आतंकियों के साथ मुठभेड़ के दौरान उन्होंने अद्वितीय साहस का प्रदर्शन किया। जब उनके साथी आतंकियों के हमले में घिर गए, तो कैप्टन दीपक सिंह ने न केवल उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया बल्कि खुद घायल होने के बावजूद मुठभेड़ जारी रखी। उन्होंने एक आतंकी को ढेर कर दिया, लेकिन इस दौरान उन्हें गंभीर चोटें आईं। आखिरकार, उन्होंने देश के लिए अपने प्राणों की आहुति दी और वीरगति को प्राप्त हुए।

 

क्यों है कैप्टन दीपक की कहानी विशेष?

 

भारतीय सेना के हर सैनिक का बलिदान अमूल्य है, पर कैप्टन दीपक सिंह की कहानी इस वजह से अलग है कि उन्होंने न केवल युद्धभूमि में वीरता दिखाई, बल्कि एक नेता की तरह अपने साथियों की रक्षा की। वह अपने दल के लिए ढाल बनकर खड़े हुए। ऐसे क्षणों में जब जान का डर सामान्य है, उन्होंने देशभक्ति को प्राथमिकता दी।

 

उनकी बहादुरी और नेतृत्व क्षमता ने उन्हें ना केवल एक कुशल अधिकारी बनाया, बल्कि एक सच्चा हीरो भी।

 

शौर्य चक्र: बहादुरी का प्रतीक

 

शौर्य चक्र भारत का तीसरा सर्वोच्च शांति-कालीन वीरता पुरस्कार है, जो दुश्मन के खिलाफ असाधारण वीरता के लिए दिया जाता है। यह सम्मान दर्शाता है कि कैप्टन दीपक सिंह का बलिदान सिर्फ एक क्षण की बहादुरी नहीं, बल्कि एक सच्चे सिपाही की जीवंत मिसाल है।

 

एक बेटे का बलिदान, एक देश का गौरव

 

जब एक बेटा देश के लिए शहीद होता है, तो वह पूरे राष्ट्र का बेटा बन जाता है। कैप्टन दीपक सिंह का बलिदान न केवल उनके माता-पिता, बल्कि पूरे उत्तराखंड और भारत के लिए प्रेरणा है। उनके जीवन से यह संदेश मिलता है कि देश सेवा सबसे बड़ा धर्म है।

 

आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा

 

कैप्टन दीपक सिंह जैसे वीरों की कहानियाँ आने वाली पीढ़ियों को न केवल प्रेरित करती हैं, बल्कि उन्हें यह भी सिखाती हैं कि सच्चा साहस क्या होता है। यह केवल बंदूक उठाने में नहीं, बल्कि संकट की घड़ी में सही निर्णय लेने और दूसरों की रक्षा करने में है।

 

 

 

निष्कर्षतः, शहीद कैप्टन दीपक सिंह की कहानी हमें यह याद दिलाती है कि हम जिन अधिकारों और स्वतंत्रता का आनंद लेते हैं, उनके पीछे ऐसे अनगिनत वीर सपूतों का बलिदान छिपा है। हम उनके ऋणी हैं — हमेशा रहेंगे।

 

जय हिन्द।

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