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सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: मुफ्तखोरी की राजनीति पर सवाल

 

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को शहरी बेघरों के लिए आश्रय की मांग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए एक अहम टिप्पणी की। इस दौरान जस्टिस बीआर गवई ने इशारों-इशारों में राजनीतिक दलों की ‘रेवड़ी’ (मुफ्त) योजनाओं पर निशाना साधते हुए कहा कि लोगों को परजीवी बनाने के बजाय उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ा जाना चाहिए ताकि वे देशहित में अपना योगदान दे सकें। इस टिप्पणी के बाद देशभर में मुफ्त की योजनाओं और रेवड़ी संस्कृति पर चर्चाएं शुरू हो गईं।

 

अदालत की टिप्पणी: मुफ्त योजनाओं का असर

 

सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के दौरान जस्टिस गवई ने कहा कि यह बेहतर होगा कि लोगों को समाज में योगदान देने के लिए प्रेरित किया जाए, बजाय इसके कि उन्हें परजीवी बनाया जाए। उन्होंने यह भी कहा कि जिनकी जरूरत नहीं है, उन्हें मुफ्त की चीजें देना केवल एकतरफा और अस्थायी समाधान है। जस्टिस गवई ने अपने व्यक्तिगत अनुभव का उदाहरण देते हुए कहा कि वह एक कृषि परिवार से आते हैं, और महाराष्ट्र में मुफ्त की योजनाओं के कारण अब किसानों को मजदूर नहीं मिल रहे हैं। चुनावों से पहले जब मुफ्त योजनाओं का एलान किया जाता है, तो यह योजनाएं कुछ अस्वास्थ्यकर प्रभाव डालती हैं।

 

किस मामले पर थी सुनवाई?

 

यह टिप्पणी शहरी बेघरों के लिए आश्रय की मांग करने वाली जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान की गई। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्यों से शहरी बेघरों के लिए आश्रयों के बारे में जानकारी मांगी थी और शेल्टर होम्स की स्थिति की समीक्षा की थी। इस संदर्भ में वकील प्रशांत भूषण ने भी कोर्ट को बताया था कि दिल्ली में शेल्टर होम्स में सिर्फ 17,000 बेघरों के लिए जगह है, जबकि यह संख्या 2 लाख से ज्यादा होनी चाहिए।

 

सुप्रीम कोर्ट ने किन योजनाओं पर उठाए सवाल?

 

सुप्रीम कोर्ट ने विशेष रूप से मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की मुफ्त योजनाओं पर सवाल उठाए। मध्य प्रदेश में लागू *लाड़ली बहन योजना* के तहत महिलाएं 1250 रुपये प्रति माह पाती हैं, जबकि महाराष्ट्र में भी *लाड़की बहिन योजना* के तहत महिलाओं को 1500 रुपये प्रति माह की मदद दी जाती है। जस्टिस गवई ने इन योजनाओं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि मुफ्त योजनाएं अक्सर वास्तविक समस्याओं का समाधान नहीं करतीं।

 

मुफ्त राशन योजना का जिक्र

 

सुप्रीम कोर्ट ने मुफ्त राशन योजना का भी जिक्र किया, जिसे केंद्र सरकार ने कोरोना महामारी के दौरान शुरू किया था। इस योजना के तहत गरीबों को मुफ्त खाद्यान्न दिया जाता है, जो अब दिसंबर 2023 तक जारी रहने की योजना थी, और फिर इसे जनवरी 2024 से पांच सालों के लिए बढ़ा दिया गया।

 

नकद हस्तांतरण योजनाओं पर विचार

 

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) द्वारा किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारत सरकार ने 2013 में महिला बैंक खाताधारकों के लिए डिजीटल भुगतान प्रणाली (डीबीटी) शुरू की थी, जिसके जरिए 2022 तक ₹16.8 लाख करोड़ का ट्रांसफर किया गया। इस राशि का एक बड़ा हिस्सा कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान ट्रांसफर किया गया। इन योजनाओं के प्रभाव के बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि यह महिलाओं के निर्णय लेने की प्रक्रिया को मजबूत करता है और उनके शिक्षा एवं रोजगार के अवसरों को बढ़ाता है।

 

निष्कर्ष

 

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी इस बात पर जोर देती है कि मुफ्त योजनाओं को केवल चुनावी लाभ के लिए नहीं, बल्कि दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक सुधार के दृष्टिकोण से लागू किया जाना चाहिए। इन योजनाओं को यदि सही तरीके से लागू किया जाए तो ये समाज के विभिन्न वर्गों को आत्मनिर्भर बना सकती हैं, लेकिन केवल मुफ्त का वितरण करने से समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो सकता।

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