Congress ;उत्तराखंड समेत देशभर में कांग्रेस बीते आठ वर्षों से सत्ता से बाहर है। इस राजनीतिक वनवास ने पार्टी को सिर्फ सरकार से ही नहीं, बल्कि संगठनात्मक रूप से भी कमजोर किया है। खासतौर पर कांग्रेस की पहचान रहे एनएसयूआई (राष्ट्रीय छात्र संघ) और युवा कांग्रेस जैसे संगठन, जो कभी ऊर्जा, जोश और विचारधारा के पोषक माने जाते थे, आज निष्क्रियता की स्थिति में पहुंच चुके हैं।
एक समय था जब कॉलेज कैंपस से लेकर सड़कों तक कांग्रेस के ये संगठन सरकार की नीतियों का विरोध करने, छात्रों और युवाओं की आवाज उठाने में सबसे आगे रहते थे। पर आज इनमें वह पुराना जोश और नेतृत्व क्षमता नहीं दिखती। राजनीति के जानकार मानते हैं कि कांग्रेस की यह कमजोरी केवल चुनावी हार की वजह से नहीं है, बल्कि सांगठनिक ढांचे में युवाओं की भागीदारी की कमी और परिवारवाद की पकड़ भी इसके पीछे एक बड़ी वजह है।
प्रदेश स्तर पर देखा जाए तो कांग्रेस की पहली पंक्ति के नेता जहां अपनी जड़ें जमाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, वहीं दूसरी पंक्ति के नेता अभी तक न तो परिपक्व हो पाए हैं और न ही जनता के बीच अपनी विशेष पहचान बना पाए हैं। पार्टी के सामने यह दोहरी चुनौती है — एक ओर नेतृत्व की पीढ़ीगत खाई, दूसरी ओर संगठनात्मक ढीलापन।
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि प्रदेश कांग्रेस में कई वरिष्ठ नेताओं का प्रभुत्व इतना मजबूत है कि उनके साये में नए चेहरे उभर नहीं पा रहे हैं। युवा नेताओं को न तो खुला मंच मिल रहा है और न ही निर्णय लेने की स्वतंत्रता। इस वजह से पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी सीमित हो गई है। जिन युवा चेहरों को पार्टी ने आगे बढ़ाया भी, वे अधिकतर पारिवारिक विरासत के कारण मंच पर आए, न कि जमीनी संघर्ष या सांगठनिक अनुभव से।
ऐसे समय में जब राज्य में 2027 का विधानसभा चुनाव सामने है, कांग्रेस को एक ठोस रणनीति और मजबूत नेतृत्व की आवश्यकता है। लेकिन दुख की बात यह है कि पार्टी आज भी उन्हीं पुराने चेहरों पर निर्भर है, जिन्होंने पूर्व में भी चुनाव लड़े और अक्सर हार का सामना किया। यह स्थिति न केवल पार्टी की रणनीतिक विफलता को दर्शाती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि कांग्रेस की युवा पीढ़ी नेतृत्व के लिए तैयार नहीं हो पा रही है।
पार्टी के कुछ पुराने कार्यकर्ता और वरिष्ठ पदाधिकारी यह मानते हैं कि एनएसयूआई और युवा कांग्रेस जैसे संगठनों को फिर से मजबूत करने की जरूरत है। इन्हीं संगठनों के माध्यम से कभी इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर राहुल गांधी तक के नेताओं ने जमीनी राजनीति सीखी थी। पर आज के हालात में ये संगठन सिर्फ नाम के रह गए हैं। धरातल पर इनकी उपस्थिति नगण्य है, और युवाओं के बीच इनकी साख भी कमजोर हो चुकी है।
राजनीति केवल चुनाव लड़ने का खेल नहीं होती, यह समाज से जुड़ने, विचारों को फैलाने और नेतृत्व को तैयार करने की प्रक्रिया होती है। जब तक कांग्रेस इन मूलभूत बातों को नहीं समझेगी, तब तक वह सिर्फ संघर्ष में ही फंसी रहेगी। भाजपा जैसी पार्टियाँ जहां बूथ स्तर से कार्यकर्ता तैयार कर रही हैं, वहीं कांग्रेस के संगठन एकजुटता और रणनीतिक दृष्टि के अभाव में पिछड़ रहे हैं।
हालांकि, यह कहना गलत होगा कि कांग्रेस में नेताओं की कमी है। आज भी कांग्रेस के पास कई अनुभवी और प्रभावशाली नेता मौजूद हैं, जिनकी पहचान प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर बनी हुई है। कई बार भाजपा भी कांग्रेस से जुड़े रहे नेताओं के दम पर ही अपनी स्थिति मजबूत करती रही है। यहां तक कि सत्ता पक्ष द्वारा कांग्रेस नेताओं को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल करने की कोशिशें यह दिखाती हैं कि कांग्रेस में आज भी नेतृत्व की क्षमता बाकी है। लेकिन यह शक्ति तभी सार्थक हो सकती है जब उसे सही दिशा मिले और संगठनात्मक रूप से पुनर्गठन किया जाए।
आज कांग्रेस को जरूरत है कि वह अपने सांगठनिक ढांचे को नीचे से ऊपर तक मज़बूत करे। युवाओं को वास्तविक अवसर दे, न कि केवल कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाने के लिए मंच पर बिठाए। विचारधारा और संघर्ष के आधार पर नेतृत्व तैयार हो, ताकि पार्टी भविष्य में आत्मनिर्भर बन सके।
2027 का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए सिर्फ एक और राजनीतिक लड़ाई नहीं होगा, बल्कि यह परीक्षा होगी कि क्या पार्टी अपनी खोई हुई जड़ें दोबारा खोज सकती है। क्या वह नए नेतृत्व को तैयार कर सकती है, और क्या वह अपनी नर्सरी को फिर से सींचने में सक्षम होगी? ये सवाल न केवल कांग्रेस बल्कि प्रदेश की राजनीति के लिए भी बेहद अहम होंगे।