उत्तराखंड में पंचायत व्यवस्था गंभीर संकट से गुजर रही है। प्रदेश की 10,760 त्रिस्तरीय पंचायतें फिलहाल मुखिया विहीन हो चुकी हैं, जिससे राज्य में स्थानीय शासन का पहिया ठप हो गया है। यह स्थिति उस समय उत्पन्न हुई जब पंचायतों में नियुक्त प्रशासकों का कार्यकाल समाप्त हो गया और उन्हें दोबारा नियुक्त करने के लिए लाया गया अध्यादेश राज्यपाल से मंजूरी नहीं पा सका।

 

राज्य में प्रशासनिक शून्यता

 

हरिद्वार को छोड़कर राज्य की सभी पंचायतें—7478 ग्राम पंचायतें, 2941 क्षेत्र पंचायतें और 341 जिला पंचायतें—मुखिया विहीन हो गई हैं। इसका अर्थ है कि इनमें न तो निर्वाचित प्रतिनिधि हैं और न ही प्रशासक, जो सरकार की योजनाओं को ज़मीनी स्तर तक लागू कर सकें।

 

इस स्थिति ने पंचायत प्रणाली को न केवल अव्यवस्थित किया है, बल्कि इससे ग्रामीण विकास योजनाओं और आमजन को होने वाली सेवाओं पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है।

 

अध्यादेश पर उठे विधिक प्रश्न

 

प्रशासकों के कार्यकाल की समाप्ति के बाद पंचायती राज विभाग ने त्वरित रूप से प्रशासकों की पुनर्नियुक्ति के लिए एक प्रस्ताव तैयार किया और उसे अध्यादेश के रूप में राजभवन भेजा। लेकिन इस प्रस्ताव को विधायी विभाग पहले ही यह कहकर अस्वीकार कर चुका था कि कोई भी अध्यादेश यदि एक बार वापस कर दिया गया हो, तो उसे उसी रूप में दोबारा लाना संविधान के अनुरूप नहीं माना जा सकता।

 

विधायी विभाग की आपत्ति के बावजूद अध्यादेश को दोबारा राजभवन भेजा गया। राज्यपाल सचिवालय की ओर से यह स्पष्ट किया गया कि विधायी आपत्तियों का समाधान किए बिना फाइल भेजी गई, इसलिए उसे पुनः विधायी विभाग को वापस भेज दिया गया है।

 

राज्यपाल के सचिव रविनाथ रामन ने बताया कि अध्यादेश में कुछ बिंदु स्पष्ट नहीं थे और विधिक परीक्षण के बाद उसे लौटाया गया। उन्होंने यह भी कहा कि विधायी विभाग ने कुछ कानूनी सवाल उठाए थे, जिनका संतोषजनक समाधान नहीं किया गया।

 

तकनीकी पेच और संवैधानिक चुनौती

 

राज्य के संवैधानिक ढांचे के तहत पंचायतों की भूमिका बेहद अहम है। त्रिस्तरीय पंचायतें—ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत—राज्य शासन की नीतियों को ग्रामीण स्तर पर लागू करती हैं। प्रशासकों के बिना पंचायतों में निर्णय प्रक्रिया, फंड का उपयोग, विकास योजनाओं की निगरानी और जन सहभागिता ठप पड़ गई है।

 

इस पूरे घटनाक्रम में तकनीकी और विधिक पेच ने शासन व्यवस्था को जटिल बना दिया है। अमर उजाला की रिपोर्ट के अनुसार, 2 जून को यह मुद्दा प्रमुखता से सामने आया जब पता चला कि राजभवन ने अध्यादेश मंजूर नहीं किया।

 

पिछला अध्यादेश और विधानसभा की चूक

 

उल्लेखनीय है कि 2021 में भी उत्तराखंड पंचायती राज अधिनियम 2016 में संशोधन हेतु एक अध्यादेश लाया गया था। उस समय राजभवन ने अध्यादेश को मंजूरी दी थी, लेकिन उसे विधानसभा में पारित नहीं कराया गया। इसका कारण यह था कि हरिद्वार में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव पहले ही कराए जा चुके थे।

 

इस बार जब राज्य सरकार ने प्रशासकों की पुनर्नियुक्ति हेतु अध्यादेश लाने की कोशिश की, तो वही पुरानी गलती दोहराई गई। विधायी विभाग ने फिर स्पष्ट किया कि पहले लौटा हुआ अध्यादेश जस का तस दोबारा नहीं लाया जा सकता।

 

आगे की राह

 

अब राज्य सरकार के पास कुछ ही विकल्प शेष हैं—या तो विधानसभा का विशेष सत्र बुलाकर विधेयक पारित कराए, या पंचायत चुनाव जल्द से जल्द कराए जाएं। तीसरा विकल्प प्रशासकों की पुनर्नियुक्ति के लिए संविधान सम्मत प्रक्रिया अपनाने का हो सकता है, जिसमें विधायी आपत्तियों का समाधान पहले किया जाए।

 

फिलहाल स्थिति यह है कि राज्य की 10,760 पंचायतों में कोई नेतृत्व नहीं है। इससे गांवों में विकास कार्य अटक गए हैं, और स्थानीय जनता को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। यह मामला न केवल प्रशासनिक विफलता को दर्शाता है, बल्कि संविधानिक व्यवस्था पर भी सवाल उठाता है।

 

निष्कर्ष

 

उत्तराखंड में पंचायत प्रणाली की यह स्थिति चिंताजनक है। राज्य सरकार को शीघ्रता से ठोस कदम उठाने होंगे ताकि संवैधानिक संकट का समाधान निकाला जा सके और जनता को सुशासन की मूलभूत सुविधा मिल सके। पंचायतें ग्रामीण भारत की रीढ़ हैं—यदि वे ही मुखिया विहीन रहेंगी, तो

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