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Raja Harishchandra story in hindi : राजा हरिश्चन्द्र की राज काज छोड़ने के कारणों को लेकर मार्कण्डेय पुराण में विस्तृत वर्णन है। चलिये जानते है राजा की कहानी।

कौन थे राजा हरिश्चंद्र (who was raja harishchandra )

त्रेतायुगमें हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) नामसे प्रसिद्ध एक राजर्षि रहते थे। वे बड़े धर्मात्मा, भूमण्डलके पालक, सुन्दर कीर्तिसे युक्त और सब प्रकारसे श्रेष्ठ थे। उनके राज्यकालमें कभी अकाल नहीं पड़ा, किसीको रोग नहीं हुआ, मनुष्योंकी अकालमृत्यु नहीं हुई और पुरवासियोंकी कभी अधर्ममें रुचि नहीं हुई। उस समय प्रजावर्गके लोग धन, वीर्य और तपस्याके मदसे उन्मत्त नहीं होते थे। कोई भी स्त्री ऐसी नहीं देखी जाती थी, जो पूर्ण यौवनावस्थाको प्राप्त किये बिना ही सन्तानको जन्म देती रही हो ।

एक दिन महाबाहु राजा हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) जंगलमें शिकार खेलने गये थे। वहाँ शिकारके पीछे दौड़ते हुए उन्होंने बारंबार कुछ स्त्रियोंकी कातरवाणी सुनी। वे कह रही थीं, ‘हमें बचाओ, बचाओ।’ राजाने शिकारका पीछा छोड़ दिया और उन स्त्रियोंको लक्ष्य करके कहा-‘डरो मत, डरो मत। कौन ऐसा दुष्टबुद्धिवाला पुरुष है जो मेरे शासनकालमें भी ऐसा अन्याय करता है ?”यों कहकर स्त्रियोंके रोनेके शब्दका अनुसरण करते हुए राजा उसी ओर चल दिये।

इसी बीचमें प्रत्येक कार्यके आरम्भमें बाधा उपस्थित करनेवाला रुद्रकुमार विघ्नराज इस प्रकार सोचने लगा- ‘ये महर्षि विश्वामित्र बड़े पराक्रमी हैं और अनुपम तपस्याका आश्रय लेकर उत्तम व्रतका पालन करते हुए उन भवादि विद्याओंका साधन करते हैं, जो पहले इन्हें सिद्ध नहीं हो सकी हैं। ये महर्षि क्षमा, मौन तथा आत्मसंयमपूर्वक जिन विद्याओंका साधन करते हैं, वे उनके भयसे पीड़ित होकर यहाँ विलाप कर रही हैं। इनके उद्धारका कार्य मुझे किस प्रकार करना चाहिये?’ इस प्रकार विचार करते हुए रुद्रकुमार विघ्नराजने राजाके शरीरमें प्रवेश किया।

उनके आवेशसे युक्त होने पर राजाने क्रोधपूर्वक ये बात कही-‘यह कौन पापाचारी मनुष्य है, जो कपड़ेकी गठरीमें अग्निको बाँध रहा है ? बल और प्रचण्ड तेजसे उद्दीप्त मुझ राजाके उपस्थित रहते हुए आज कौन ऐसा पापी है, जो मेरे धनुषसे छूटकर सम्पूर्ण दिशाओंको देदीप्यमान करनेवाले बाणोंसे सर्वाङ्गमें छिन्न-भिन्न होकर कभी न टूटनेवाली निद्रामें प्रवेश करना चाहता है ?’

राजाकी यह बात सुनकर तपस्वी विश्वामित्र कुपित हो उठे। उनके मनमें क्रोधका उदय होते ही वे सम्पूर्ण विद्याएँ, जो स्त्रियोंके रूपमें रो रही थीं, क्षणभरमें अन्तर्धान हो गयीं। तदनन्तर राजाने उन तपस्याके भण्डार महर्षि विश्वामित्रकी ओर दृष्टिपात किया तो वे बड़े भयभीत हुए और सहसा पीपलके पत्तेकी भाँति थरथर काँपने लगे। इतनेमें विश्वामित्र बोल उठे-‘ओ दुरात्मा! खड़ा तो रह।’ तब राजाने विनयपूर्वक मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा—‘भगवन्! यह मेरा धर्म था। प्रभो! इसे आप मेरा अपराध न मानें । मुने! अपने धर्मकी रक्षामें लगे हुए मुझ राजापर आपको क्रोध नहीं करना चाहिये। धर्मज्ञ राजाको तो यह | र उचित ही है कि वह धर्मशास्त्र के अनुसार दान दे, स रक्षा करे और धनुष उठाकर युद्ध करे।’

विश्वामित्र बोले –’राजन्! यदि तुम्हें अधर्मका डर है, तो शीघ्र बताओ – किसको दान देना चाहिये ? किनकी रक्षा करनी चाहिये और किनके साथ युद्ध करना चाहिये ?

हरिश्चन्द्रने (raja harishchandra) कहा – श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको तथा जिनकी जीविका नष्ट हो गयी हो, ऐसा अन्य मनुष्योंको भी दान देना चाहिये। भयभीत प्राणियोंकी रक्षा करनी चाहिये और शत्रुओंके साथ सदा युद्ध करना चाहिये।

विश्वामित्र बोले – यदि तुम राजा हो और राज – धर्मको भलीभाँति जानते हो तो मैं प्रतिग्रहकी इच्छा रखनेवाला ब्राह्मण हूँ, मुझे इच्छानुसार दक्षिणा दो। पक्षीगण कहते हैं—महर्षिकी यह बात सुनकर राजाने अपना नया जन्म हुआ माना और प्रसन्नचित्तसे कहा ।

हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) बोले–भगवन्! आपको मैं क्या दूँ, आप नि:शङ्क होकर कहिये। यदि कोई दुर्लभ से-दुर्लभ वस्तु हो तो उसे भी दी हुई ही समझें।

विश्वामित्रने कहा – वीरवर! तुम समुद्र, पर्वत, ग्राम और नगरोंसहित यह सारी पृथ्वी मुझे दे दो रथ, घोड़े, हाथी, कोठार और खजानेसहित सारा राज्य भी मुझे समर्पित कर दो। इसके अतिरिक्त भी जो कुछ तुम्हारे पास है, वह मुझे दे दो। केवल अपनी स्त्री, पुत्र और शरीरको अपने पास रख लो। साथ ही अपने धर्मको भी तुम्हीं रखो; क्योंकि वह सदा कर्ताके ही साथ रहता है, परलोकमें जानेपर भी वह साथ जाता है।

मुनिका यह वचन सुनकर राजाने प्रसन्नचित्तसे ‘तथास्तु’ कहा। हाथ जोड़कर उनकी आज्ञा स्वीकार की। उस समय उनके मुखपर शोक या चिन्ताका कोई चिह्न नहीं था । विश्वामित्र बोले – राजर्षे! यदि तुमने अपना राज्य, पृथ्वी, सेना और धन आदि सर्वस्व मुझे समर्पित कर दिया तो मुझ तपस्वीके इस राज्य में रहते किसका प्रभुत्व रहा ?

हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) ने कहा- ‘ब्रह्मन्! मैंने जिस समय यह पृथ्वी दी है, उसी समय आप मेरे भी स्वामी हो गये। फिर आपके इस पृथ्वीके राजा होनेकी तो बात ही क्या है ।

विश्वामित्र बोले – राजन् ! यदि तुमने यह सारी पृथ्वी मुझे दान कर दी तो जहाँ-जहाँ मेरा प्रभुत्व हो, वहाँसे तुम्हें निकल जाना चाहिये। करधनी आदि समस्त आभूषणोंका संग्रह यहीं छोड़कर तुम वल्कलका वस्त्र लपेट लो और अपनी पत्नी तथा पुत्रके साथ चले जाओ।

‘बहुत अच्छा’ कहकर राजा हरिश्चन्द्र अपनी पत्नी शैब्या तथा पुत्र रोहिताश्व (raja harishchandra son ) को साथ ले वहाँसे जाने लगे। उस समय विश्वामित्रने उनका मार्ग रोककर कहा -‘मुझे राजसूय यज्ञकी दक्षिणा दिये बिना ही तुम कहाँ जा रहे हो ?’

हरिश्चन्द्र बोले- भगवन् ! यह अकण्टक राज्य तो मैंने आपको दे ही दिया, अब तो मेरे पास ये तीन शरीर ही शेष बचे हैं।

विश्वामित्रने कहा – तो भी तुम्हें मुझे यज्ञकी दक्षिणा तो देनी ही चाहिये। विशेषतः ब्राह्मणों को कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके यदि न दिया जाय तो वह प्रतिज्ञा-भङ्गका दोष उस व्यक्तिका नाश कर डालता है। राजन्! राजसूय यज्ञमें ब्राह्मणोंको जितनेसे सन्तोष हो, उस यज्ञकी उतनी ही दक्षिणा देनी चाहिये। तुमने ही पहले प्रतिज्ञा की है कि देनेकी घोषणा कर देनेपर अवश्य देना चाहिये, आततायियोंसे युद्ध करना चाहिये तथा आर्तजनोंकी रक्षा करनी चाहिये ।

हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) बोले – भगवन् ! इस समय मेरे पास कुछ भी नहीं है। समयानुसार अवश्य आपको दूँगा।

विश्वामित्रने कहा–राजन् ! इसके लिये मुझे कितने समयतक प्रतीक्षा करनी होगी, शीघ्र बताओ।

हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) बोले ब्रह्मर्षे ! मैं एक महीनेमें आपको दक्षिणाके लिये धन दूँगा । इस समय मेरे पास धन नहीं है, अतः मुझे जानेकी आज्ञा दीजिये ।

विश्वामित्रने कहा – नृपश्रेष्ठ ! जाओ, जाओ ! अपने धर्मका पालन करो। तुम्हारा मार्ग कल्याणमय हो। पक्षी कहते हैं – विश्वामित्रने जब ‘जाओ’ कहकर जानेकी आज्ञा दी, तब राजा हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) नगरसे चले। उनके पीछे उनकी प्यारी पत्नी शैब्या भी चली, जो पैदल चलनेके योग्य कदापि नहीं थी। रानी और राजकुमारसहित राजा हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) को नगरसे निकलते देख उनके अनुयायी सेवकगण तथा पुरवासी मनुष्य विलाप करने लगे-‘हा नाथ! हम पीड़ितोंका आप क्यों परित्याग कर रहे हैं ? राजन् ! आप धर्ममें तत्पर रहनेवाले तथा पुरवासियों पर कृपा रखनेवाले हैं। राजर्षे ! यदि आप धर्म समझें।तो हमें भी अपने साथ ले चलें ।

महाराज ! दो घड़ी तो ठहर जाइये। हमारे नेत्ररूपी भ्रमर आपके मुखारविन्दकी रूपसुधाका पान कर लें। फिर हमें कब आपके दर्शनका सौभाग्य प्राप्त होगा। हाय! जिन महाराजके आगे-आगे चलनेपर पीछेसे कितने ही राजा चला करते थे, आज उन्हींके पीछे उनकी यह रानी अपने बालक पुत्रको गोद लेकर चल रही है। यात्राके समय जिनके सेवक भी हाथियोंपर बैठकर आगे जाते थे, वे ही महाराज हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) आज पैदल चल रहे हैं! हा राजन्! मनोहर भौंहों, चिकनी त्वचा तथा ऊँची नासिकासे सुशोभित आपका सुकुमार मुख मार्गमें धूलिसे धूसरित एवं क्लेशयुक्त होकर न जाने कैसी दशाको प्राप्त होगा। नृपश्रेष्ठ! ठहर जाइये, ठहर जाइये; यहीं अपने धर्मका पालन कीजिये । क्रूरताका परित्याग ही सबसे बड़ा धर्म है। विशेषतः क्षत्रियोंके लिये तो यही सबसे उत्तम है। नाथ ! अब हमें स्त्री, पुत्र, धन-धान्य आदिसे क्या लेना है। यह सब छोड़कर हमलोग आपके साथ छायाकी भाँति रहेंगे। हा नाथ! हा महाराज !!

हा स्वामिन् !!! आप हमें क्यों त्याग रहे हैं? जहाँ आप रहेंगे, वहीं हम भी रहेंगे। जहाँ आप हैं, वहीं सुख है। जहाँ आप हैं, वहीं नगर है और जहाँ हमारे महाराज आप हैं, वहीं हमारे लिये स्वर्ग है ।’

पुरवासियोंकी ये बातें सुनकर राजा हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) शोकमग्र हो उनपर दया करनेके लिये ही मार्गमें उस समय ठहर गये। विश्वामित्रने देखा, राजाका चित्त पुरवासियोंके वचनोंसे व्याकुल हो उठा है;

तब वे उनके पास आ पहुँचे और रोष तथा अमर्षसे आँखें फाड़कर बोले-‘अरे ! तू तो बड़ा दुराचारी, झूठा और कपटपूर्ण बातें करनेवाला है। धिक्कार है तुझे, जो मुझे राज्य देकर फिर उसे वापस ले लेना चाहता है।’ विश्वामित्रका यह कठोर वचन सुनकर राजा काँप उठे और ‘जाता हूँ, जाता हूँ’ कहकर अपनी पत्नीका हाथ पकड़कर खींचते हुए शीघ्रतापूर्वक चले । राजा अपनी पत्नीको खींच रहे थे। वह सुकुमारी अबला चलनेके परिश्रमसे थककर व्याकुल हो रही थी तो भी विश्वामित्रने सहसा उसकी पीठपर डंडेसे प्रहार किया। महारानीको इस प्रकार मार खाते देख महाराज हरिश्चन्द्र (raja harishchandra) दुःखसे आतुर होकर र केवल इतना ही कह सके, ‘भगवन्! जाता हूँ।’ उनके मुखसे और कोई बात नहीं निकल सकी।

उस समय परम दयालु पाँच विश्वेदेव आपसमें द इस प्रकार कहने लगे-‘ओह! यह विश्वामित्र तो में बड़ा पापी है। न जाने किन लोकोंमें जायगा। इसने यज्ञकर्ताओंमें श्रेष्ठ इन महाराजको अपने ; राज्यसे नीचे उतार दिया है।’ विश्वेदेवोंकी यह बात सुनकर विश्वामित्रको बड़ा रोष हुआ। उन्होंने उन सबको शाप देते हुए कहा- ‘तुम सब लोग मनुष्य हो जाओ।’ फिर उनके अनुनय-विनयसे प्रसन्न होकर उन महामुनिने कहा – ‘मनुष्य होनेपर भी तुम्हारे कोई सन्तान नहीं होगी, तुम विवाह भी नहीं करोगे। तुम्हारे मनमें किसीके प्रति ईर्ष्या और द्वेष भी नहीं होगा। तुम पुनः काम-क्रोधसे मुक्त होकर देवत्वको प्राप्त कर लोगे।’ तदनन्तर वे विश्वेदेव अपने अंशसे कुरुवंशियोंके घरमें अवतीर्ण हुए। वे ही द्रौपदीके गर्भसे उत्पन्न पाँचों पाण्डवकुमार थे। महामुनि विश्वामित्रके शापसे ही उनका विवाह नहीं हुआ। जैमिनि ! इस प्रकार हमने पाण्डवकुमारोंकी कथासे सम्बन्ध रखनेवाली बातें तुम्हें बतला दीं। अब और क्या सुनना चाहते हो ?

raja harishchandra story in hindi के अगले भाग में हम यहां से आगे की कहानी जानेंगें।

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